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१. रिपु-रसा = शत्रु की जिह्वा कीर्ति, श्री एवं विजय प्रदायक

जो साधक अपने इष्ट देवता का निष्काम भाव से अर्चन करता है और लगातार उसके मंत्र का जप करता हुआ उसी का चिन्तन करता रहता है, तो उसके जितने भी सांसारिक कार्य हैं उन सबका भार मां स्वयं ही उठाती हैं और अन्ततः मोक्ष भी प्रदान करती हैं। यदि आप उनसे पुत्रवत् प्रेम करते हैं तो वे मां के रूप में वात्सल्यमयी होकर आपकी प्रत्येक कामना को उसी प्रकार पूर्ण करती हैं जिस प्रकार एक गाय अपने बछड़े के मोह में कुछ भी करने को तत्पर हो जाती है। अतः सभी साधकों को मेरा निर्देष भी है और उनको परामर्ष भी कि वे साधना चाहे जो भी करें, निष्काम भाव से करें। निष्काम भाव वाले साधक को कभी भी महाभय नहीं सताता। ऐसे साधक के समस्त सांसारिक और पारलौकिक समस्त कार्य स्वयं ही सिद्ध होने लगते हैं उसकी कोई भी किसी भी प्रकार की अभिलाषा अपूर्ण नहीं रहती ।

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व्यप्ताङ्गीं बगलामुखीं त्रि-जगतां संस्तम्भिनी चिन्तये ।।

२. श्रीस्तम्भिन्यै नमः शत्रुओं का वाक्-स्तम्भन (नियन्त्रण) करनेवाली शक्ति को नमस्कार।

‘तैत्तरीय ब्राह्मण’ में भी कहा है- असुरा वै निर्यन्तो देवानां प्राणेषु वलगान् न्यखनन् अर्थात् देवताओं को मारने के लिए असुरों ने अभिचार किया।

गम्भीरां कम्बु-कण्ठीं कठिन-कुच-युगां चारु-बिम्बाधरोष्ठीं।।

युवतीं च मदोन्मत्तां, पीताम्बरा-धरां शिवाम् । पीत-भूषण-भूषाङ्गीं, सम-पीन-पयोधराम्॥

३. श्रीजम्भिन्यै नमः दुष्टों या दुवृत्तियों को कुतर-कुतर कर टुकड़े करनेवाली को नमस्कार

बगला-गायत्री-मन्त्र’ (ब्रह्मास्त्राय विद्महे स्तम्भन-वाणाय धीमहि तन्न: बगला प्रचोदयात्) के  प्रारम्भ में ‘ॐ’ लगाकर जप करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ‘ऐं’ लगाने से शान्ति, ‘क्ली’ लगाने से सम्मोहन, ‘ह्लीं’ लगाने से स्तम्भन, ‘हूं हूं’ लगाने से विद्वेषण, ‘ग्लौं’ लगाने से उच्चाटन की शक्ति प्राप्त होती है। ऐं क्लीं सौ:’ लगाकर जप करने से वाञ्छित पत्नी की प्राप्ति होती है।

श्री – सिंहासन – मौलि-पातित-रिपुं प्रेतासनाध्यासिनीम् ।।

अर्थात् ‘ इन्द्रादि देवताओं द्वारा पराजित होकर भागे हुए राक्षसों ने देवताओं के बध के लिए अस्थि, केश, नखादि पदार्थों के द्वारा अभिचार किया।’

३०. ॐ ह्लीं श्रीं ढं श्रीविजयायै नमः–दक्ष-पादांगुलि-मूले (दाँएँ पैर की अँगुलियों read more की जड़ में)

खड्ग-कर्त्री-समायुक्तां, सव्येतर-भुज-द्वयाम् । कपालोत्पल-संयुक्तां, सव्य-पाणि-युगान्विताम् । ।

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